रविवार, 30 जनवरी 2011

अप्रासंगिक

अब जब कि ये स्वर बुलन्द हैं कि
- मासूम प्रेम जैसा कुछ नहीं होता
- बिन सोता सूखा है स्थायी सीजन
- आलिंगन माल में एक और वर्जन लंघन;
तुम्हारी याद मुझे जरूरी लगती है।

सब ओर उन मक्कारियों के साये हैं
जो तब भी थीं जब हम सकारते थे प्रेम को
हताशायें और तनाव बढ़े हैं - तब भी बढ़े थे।
लेकिन चन्द चमकारियों के लालच में
जवानों ने भोली कवितायें पढ़ना गढ़ना छोड़ा है
और हमारी आयु के जन के लिये कुछ भी रचना
या तो बाध्यता है या सिर्फ एक एडिक्शन है,
जिन्दगी भरपूर गबन है।

कफन कपड़ों से सिले बस्तों में
बच्चों की पुस्तकें दफन हैं
और उनके अक्षरों में
नैतिकता के आडम्बर कीड़ों से लगे हैं।

हर समस्या पर हो हल्ला विमर्श है
इनामों की चमक चकमक है
चीखते टीवी पर चमत्कार हैं
आइटम डांस की ललकार है
जब कि पड़ोस में सन्नाटा है।

पत्नी की किटी पार्टी है
बच्चों के फेसबुकिया प्रोफाइल हैं।
जमाने की हाँ में हाँ नहीं मिलाता
उसके साथ नहीं चलता
मिड एज क्राइसिस के साथ
इन सबके बीच यह 'तुम्हारा' अकेला है -
तुम्हारी याद मुझे जरूरी लगती है।

तुम्हारी याद की ही तरह
मेरे जैसे का ज़िद पकड़ बचे रहना
उसका बचे रहना है जो
- निहारा करता था आसमान को
और तारों से करते हुए बातें
गढ़ लेता था किस्से।
- ढूँढ़ता था स्वर हर गीत में
(जब कि संगीत का स भी नहीं आता था)
और मुस्कुरा देता था अकेले
किसी काल्पनिक गीत पर।

जानते हुए भी अपनी अप्रासंगिकता
जाने क्यों मुझे लगता है
कि मैं हूँ उस परम्परा का वाहक
जो अनंत दूर सर्वनाश की आशंका में
सृजन की आस और कर्म को सुरक्षित रखने हेतु
समय की वृद्ध चाल को ठेंगा दिखाती
तैयार करती है पीढ़ियाँ एकाकी लोगों की।

मैं हूँ बस वाहक
मुझे तो दायित्त्व सौंप देना है
किसी और को।
धीमे पग चलते
मन को बहलाने को
लहकाने को -
तुम्हारी याद मुझे जरूरी लगती है
आखिर तुमने ही तो सौंपा था -
थे तो नहीं लेकिन अंतत: हमें एकाकी होना ही था।
तुम्हारी याद मुझे जरूरी लगती है। 

बुधवार, 26 जनवरी 2011

तिलस्मी बहुत हैं रंगों के उजाले

कुछ नहीं बदला पिछले एक वर्ष में। कुछ काट छाँट और एक जोड़ के साथ दुबारा प्रस्तुत:  


 जिस दिन खादी कलफ धुलती है।सजती है लॉंड्री बेवजह खुलती है।


ये अक्षर हैं जिनमें सफाई नहीं
आँखों में किरकिर नज़र फुँकती है।

गाहे बगाहे जो हम गला फाड़ते हैं,
चीखों से साँकल चटक खुलती है।

रसूख के पहिए जालिम जोर जानी,
जब चलती है गाड़ी डगर खुदती है।

आईन है बुलन्द और छाई है मन्दी,
महफिल-ए-वाहवाही ग़जब सजती है।

साठ वर्षों से पाले भरम हैं गाफिल,
जो गाली भी हमको बहर लगती है।

सय्याद घूमें पाए तमगे सजाए,आज बकरे की माँ कहर दिखती है।


पथराई जहीनी हर हर्फ खूब जाँचे,
ग़ुमशुदा तलाश हर कदम रुकती है।

खूब बाँधी हाकिम ने आँखों पे पट्टी,
बाँच लेते हैं अर्जी कलम रुकती है।

तिलस्मी बहुत हैं रंगों के उजाले 
नीले चक्के के आगे नज़र चुँधती है। 
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 गिरिजेश राव 

शनिवार, 22 जनवरी 2011

राग रहे टोहते

सूख चले सोते मन खोह में  
आह खोई जाने किस मोह में
सूखी तूलिका सब चित्र भूली
वीतराग मीत राग रहे टोहते।

शीत तृप्ति पाप नहीं बोध में 
उलझना नहीं प्रेम के शोध में 
रीता क्यों मन रिक्त रहे झूले
चपल डार चटक रह गये खोजते।

आ जाओ साँसों को चाहिये तपती अतृप्ति
छ्न्द गये छूट मौन मसि लिखूँ क्या सन्देश?
भाग रहे निमिष क्षण हर साथी है समझ संग
फिर एक बार बनूँ मूरख मिल जाओ तुम बस।

फूट पड़ें सोते 
आह के स्वर तूलिका भिगोते।
उद्दाम काम राग चित्र 
आसक्त हों शब्द शब्द  
रच जाय बस जाय पुण्य राग।        
सज जायँ झूले हम खूब झूलें
चटक जाय डार डार 
जो पेंग भरें बार बार। 
आ जाओ गीत!
राग रहे टोहते।  

रविवार, 16 जनवरी 2011

थिर थर थर

घिर आये गीत मीत, छुयें बरसें किस अधर, रह गये थिर थर थर। 

खिंचे कभी थे तार 
आँख आँख प्रीत झर 
थिर मौन सुगम गीत 
बजते हर साँस पर। 

 रमी देह स्पर्श थाह
लाज सिमट ताख पर
प्रिय गन्ध लिपट प्रीत
ललच लाल लाभ पर। 

मन सून लगे तन घून
तुम जा बैठी राख पर 
उमड़ते गीत राग शीत    
गाऊँ किस ताल पर?

घिर आये गीत मीत, छुयें बरसें किस अधर, रह गये थिर थर थर।

शनिवार, 15 जनवरी 2011

अध्यात्म कविता - 1


'धम्मपद' से ...  

अत्तानमेव पठमं पतिरूपे निवेसये। 
अथञ्ञमनुसासेय्य न किलिस्सेय्य पण्डितो

॥12-2, 158॥
पहले अपने को ही उचित (काम) में लगाये, अनन्‍तर दूसरे को उपदेश दे। इस प्रकार पण्डित क्लेश को न प्राप्त होगा। 

अत्तना'व कतं पापं अत्तना संकिलिस्सति। 
अत्तना अकतं अत्तना'व विसुज्झति। 
सुद्धि असुद्धि पच्चतं नाञ्ञो अञ्ञं विसोधये॥12-9, 165॥ 
अपना किया हुआ पाप अपने को मलिन करता है। अपना न किया पाप अपने को शुद्ध करता है। शुद्धि और अशुद्धि अपने ही से होती है। कोई अन्य अन्य को शुद्ध नहीं कर सकता।  

बुधवार, 12 जनवरी 2011

एक प्रकरण

कल शब्दों ने कहा - 
कुछ अधिक ही होते हो तुम
अपने लिखे में, 
यह ठीक नहीं -
और चुप हो गये।
मेरे मस्तिष्क में यह साफ था 
कि ये सारे शब्द आपस में बातें नहीं करते 
तो मैं क्यों इनसे बात करूँ? - मैं चुप रहा। 
मेरे कुछ सेकेंड चुप
रहने पर 
'अभिव्यक्ति' 'संवाद' 'संप्रेषण' आदि शब्द मित्रों ने 
पूछा - चुप क्यों हो गए? कुछ कहो। 
'ईमानदारी' ने भी उकसाया
लेकिन 'आत्ममुग्धता' ने रोक दिया। 
मैं कुछ कहूँ इसके पहले ही 
'छ्न्द' नामधारी ने कहा -
तुमसे कोई आशा नहीं रही 
तुममें अराजकता झलकती है
और लापरवाही, आलस्य, प्रदर्शनप्रियता भी
चमत्कारबाजी भी। 
ऊपर से धृष्टता इतनी कि घोषित कर चुके हो
'मेरी सिर्फ _वितायें हैं और दूसरों की कवितायें'। 
'छ्न्द इतने शब्दों को यूँ लपेट सकता है!' 
मुझे आश्चर्य हुआ। 
पुन: आश्चर्य हुआ - 
इतना कुछ कहने के बाद भी 
उसके लपेटे किसी शब्द ने मुझसे कुछ नहीं कहा।
'व्यसन' धीरे से पास आकर बोला - 
तुम इसलिए लिखते हो कि मेरे प्रभाव में हो। 
मैं होता इसके पहले ही 'स्तब्ध' ने कहा - 
न, न! मेरा नाम भी मत लेना। 
मैं 'कोरा' हो गया
जब कि वह स्वयं लिख रहा था 
एक पत्र किसी 'सुरमई' को। 
यकायक सब भाग गए 
और बस 'चुप्पी' रह गयी।
उसका हाथ पकड़े 'प्रेम' आया 
प्रेम ने कहा - 
उन सबकी बातों पर न जाओ 
हमारे बारे में रचो, लिखो
हमें इससे कुछ अंतर नहीं पड़ता 
कि अपने लिखे में तुम ही तुम रहते हो। 
हमें तुम्हारे न लिखने से अन्तर पड़ता है - 
तुम न कहोगे तो कौन कहेगा 
हमारे प्रेम के बारे में?
मैं खासा उलझ गया।
उसने मेरी पीठ पर एक धौल जमाई 
और 'चुप्पी' के साथ अपने अधर जोड़ दिये। 
मैं शर्माया, 
अपनी कलम को चूमा
 और रचने लगा। 
'चमत्कार' आया
बिन माँगे प्रमाण पत्र दे गया - 
इसमें न तो मैं हूँ और न मेरा कोई हाथ है।... 
अब जब कि मैं यह प्रकरण लिख चुका हूँ, 
मैंने कहा है - क्या बात है! 
मुझे 'आत्ममुग्धता' ने गुदगुदाया है
मैंने उससे कहा है - मुझे तुमसे प्रेम नहीं। 
उसने कहा है - तुम्हारी परवाह ही कौन करता है?
मैं 'शब्द' और 'भावना' को लेकर 
अर्द्धनारीश्वर की कल्पना कर रहा हूँ - 
'कल्पना' दूर दूर तक नहीं है 
और 'सचाई' पास आ बैठी है। 

         
 

शनिवार, 8 जनवरी 2011

पानी मर गया है।

आईना देखते डरने लगा हूँ,
कहीं नीचे मासूमियत झाँकती है।
उतारने को बड़प्पन का मुलम्मा
उसे घिसता हूँ साफ तौलिये से।
मुँह नहीं धोता
मेरे भीतर कहीं पानी मर गया है।

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

कंस्ट्रक्शन साइट से - 2

- मदन! मदन!!
मैं मर जाऊँगा।
- क्या हुआ साहब?
- कान में कीड़ा घुस गया है
तेज दर्द है, जैसे जान ही चली जाएगी।
-कहता हूँ कि साइट पर न रुका करो
देर रात तक। मेरी कोई सुने तब न!
- कुछ करो बेवकूफ !
- कान टेंढ़ा करो। कड़ुआ तेल डाल देता हूँ।
कीड़ा मर जाएगा। निकल आएगा।
.... बाद में....
साहब! आप कहते हैं न -
स्टोर में रसोई नहीं।
क्या होता आज
जो मान ली होती आप की बात?
वर्कर्स रेस्ट रूम से पिल्ले
आप ने फेंकवा दिए थे न?
सब लौट आये हैं - कुतिया के साथ।
कुछ बातें नहीं होतीं,
आप की किताब के हिसाब से -
मान लिया कीजिए।
कान में कीड़े घुसते हैं
हमेशा ग़लत समय।
उस समय काम आता है
कड़ुआ तेल
चौकीदार की रसोई का।
स्टोर में केवल सीमेंट नहीं
एक आदमी  भी रहता है -
मान लीजिए।
 

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

कंस्ट्रक्शन साइट से - 1

तपता सूरज निकाल कर ही मानेगा
देह से सारे रस
काले कागज नक्शे सी फटी धरती –
बबूलों के बटवारे बिछा रही।
काँटों ने छिल डाले, गोद डाले
चेहरे के पोर पोर
समुद्र से आई हवायें
दुलार भर भर आँचल में
सफेद बारीक नमकीन सहलाहटें
जल उठे पोर पोर।
घुसा पसीना आँखों में
मिचमिचाहट, किरकिरी
चेहरे की चुनचुनी से पूछ रही
तू बड़ी की मैं बड़ी?

जम गई हवा के प्यार की लुनाई
सफेद सफेद।
भौंह पर, पलक पर, गाल पर
नाक पर और चश्मे पर भी
जाने कहाँ कहाँ कैसे क्षरण कर रही –
बम्बैया बॉस कह गया –
तू तो काला हो गया रेss  
छ: मीटर बीम के नीचे
गोरी हँसी – फिस्स!
घाम घायल लाल रुख
दूजी लाली फैल गई – हिस्स!
मैंने हैट लगाया
याद आई पूरबी बहुरिया
और छाँह हो गई -  सिस्स!

देख रहा नैन मटक्का
बूढ़ा मदन
चौकीदार।
साहब! अकेले राउंड पर न जाया करो
यह लाट देस है।
देखते नहीं,
सहलाती हवायें भी
भर जाती हैं पोर पोर जलन।
बहुत खारी हैं!
खारे पानी से प्यास नहीं बुझती।
थूक दिया है उसने सुरती – पिच्च!
हँई बस्ती जिला के बाबू हमहूँ!”
दाल नमक के लिए सहेजता हूँ
खारी हवायें जेब में।

हैट उतार कर रेलवे टाइम टेबल से 
बान्द्रा एक्सप्रेस का समय बीन रहा।  
मैं बस
फिस्स, हिस्स, सिस्स,
पिच्च!
     

शनिवार, 1 जनवरी 2011

आत्ममुग्ध प्रोफाइल

कुछ जलते दिये हैं पास में, 
हर रात राह खोजता हूँ-
पगडण्डियों के जाल में। 
चमकते वजूदों से है राजपथ रोशन,
सहमता हूँ फटकते वहाँ,
जहाँ पैरों के निशान न रहे।
...हाँ, मैं महत्वाकांक्षी नहीं,
पर सपने खूब देखता हूँ, 
वे जगाए रखते हैं मुझे रात में।
मैं हर रात राह खोजता हूँ,
दिन का क्या? बस यही कहना है- 
पास बैठो कि मेरी बकबक में नायाब बातें होती हैं। 
तफसील पूछोगे तो कह दूँगा,मुझे कुछ नहीं पता।