शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

बरहा

चभकी लाही1 बरसी, सरसो खेत
फूला मान झर गया, हुये अचेत।

महँगी मरण किसानी, जीना सेत
कर्जे की माया में, साँसें लेत। 

रमें बुझती राख में, भटकें प्रेत
चाँदी सा चमके है, बहती रेत।

बहुरेंगे दिन फिर से, कहती प्रीत 
इक ईति2 दूजी भीति3, ऐसी रीत। 

रहमी हो हारे पल, जीवन भार
कूड़े कठिन बोझ में, सार सँभार। 
हा हा क्यों रोना क्यों, विधि का खेल
मुक्ति की आशा लिये, भार ढकेल।

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1 कोहरे और शीतलहर के समय आसमान से समूह में गिरने वाले बहुत छोटे छोटे कीड़े जिनसे सरसो की फसल बरबाद हो जाती है।
2 खेती पर आने वाली 6 विपत्तियों अनावृष्टि, अतिवृष्टि आदि का सामूहिक नाम
3 भय, डर
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इन पंक्तियों को बरवै छ्न्द विधान(12, 7, 12, 7 मात्राओं) पर बहुत ढीले तरीके से रचा गया है। यह छन्द अवधी का लोकप्रिय 'देसज' छन्द है और आधुनिक हिन्दी में सम्भवत: इसका प्रयोग नहीं हुआ है।
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ई मेल से मेरे एक बहुत ही प्रिय ब्लॉगर की टिप्पणी प्राप्त हुई है। महत्त्वपूर्ण है। इसलिये उत्तर के साथ प्रकाशित कर रहा हूँ: 
सबने देखे बसंत, फूले खेत
तुमने देखे आँसू, दर्द अनेत

.....बेहतरीन । प्रतिक्रिया बरवै छंद में ही देने का प्रयास किया हूं। सही है ? बरहा का शाब्दिक अर्थ ?


उत्तर: 
वाह! क्या बात है। और लिखिये न। फागुन पर कुछ हो जाय। :) 

बरहा कई अर्थों में प्रयुक्त हुआ है: 

- बारह पंक्तियों के कारण बरहा कह दिया। मात्रा इधर उधर :) 
- अवधी में 'बरहा' माने नाली होता है। वेदना को बहाने का काम लिया इन छ्न्दों से इसलिये। 
- जैसे झगड़ा से भोजपुरी में 'झगरहा' माने झगड़ा करने वाला होता है वैसे ही 'बरवै' से बरहा :) 
- माघ के अंतिम 6 दिन और फागुन के शुरुआती 6 दिन मिला कर एक कालखंड होता है जब गई ठंड फिर से आती है। कोहरा फिर से फैलता है और दिन अजीब सा ठंडा हो जाता है। पुराने जमाने में इस समय पशु बहुत मरते थे और सम्भवत: भोजन संकट के कारण कुछ अंत्यज जातियाँ उनके मांस का भक्षण करती थीं। इस कालखंड को 'चमरबरहा' कहा जाता था। लाही का समय इससे दो तीन सप्ताह पहले का होता है। 
किसानों की तिलहन फसल चौपट हो जाने की अवसादी मन:स्थिति चमरबरहा तक जारी रहती है और उसके बाद वे सब भूल भाल कर फिर से किसानी में लग जाते हैं। ये बरवै उसी काल पर हैं इसलिये घृणित खाद्य सूचक शब्द हटा कर बस 'बरहा' कह दिया।