शनिवार, 23 जुलाई 2011

बोलऽ काकी! का करबू?

आँखि से पानी काढ़े के?
तोहरे घुघटा के आड़े से।
पोखरा परधानी खूब खोनवलें 
हराम के पइसा खूब बनवलें 
बासमती के माड़ पसइबू कि
आपन दस्खत खुदे बनइबू? 
बोलऽ काकी! का करबू? 


सावन में बा कथ्था बइठल
बत्ता बत्ता बथ्था अँइठल। 
मूड़ मरोर के पुन्न कमइहें
सुई दवाई गोली सब अनिहें 
गैस जरा के चिखना तरबू कि 
कक्का के मुँह झौंसा करबू? 
बोलऽ काकी! का करबू? 


छम्मकछल्लो गाड़ी चमके 
बड़ी सहर के साड़ी दमके। 
एक के तीन रजिस्टर में चढ़ि गे 
हँसे मँगरुआ बिधना पढ़ि के 
मुरगा दारू अइँठि भँजइबू कि  
धनिया के पेट से बिपदा हरबू?
बोलऽ काकी! का करबू?  

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

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बरसती उमस रोज सूखे आसमान से
सत्ताइस डिग्री पंचानबे परसेंट
चमकता कोलतार धूल लापता
आदमी उड़ता भाप बन और हवायें नमक नमक।
टपकते पसीनों से धुल गई सड़कें
आकाओं की सवारियाँ गुज़री है अभी अभी
हवा हुई है हर्जनुमा हसरतें हलाल हरदम
हमारी आँखें लाल लाल इनमें गुस्सा नहीं
आँसू सूख चुके इनमें घुसा पसीना देह का सभी।


No we don’t cry, we laugh in ecstasy
For the air is filled with nitrous oxide
We all are happy, this is land of happiness.
There is no marrow left in our bones
They have filled the nectar of joy in. 
We never die, we are a cancer free society
We don’t cry, we are sons of heavenly spirits.


हम हैं बेपर्दा हमारा सब कुछ है सामने
बढ़ रहे हैं पर्दानशीं घर में, दफ्तर में, सड़क पर
मालों में खुलने लगे हैं शो रूम नकाबों के
एक से बढ़ कर एक रकाबों के
वे सवार हैं म्यूटेंट हिनहिनाते गुल घोड़ों पर
जिनकी पूजा के मंत्र नहीं हमारी किताबों में
निकला किये हैं रोज वे दिग्विजय को
रोज़ उनकी जश्न है रोज विजय है
But neither horses are sacrificed nor hymns are sung
और रोज़ होता है अश्वमेध उनका।


सुनते हैं रोज़ हम उनकी दास्तान-ए-मुहब्बत
एच डी ट्रांसमिशन एल ई डी थ्री डी टीवियों पर
उफ्फ! वे हसीं चमकते सुनहले चेहरे
उफ्फ! वे काँपते होठ और लरजते आँसू
उफ्फ! वो अन्दाजे बयाँ और वो नशीली मुस्कान
उफ्फ! वो हरकतें और नेपथ्य में बजती ताली
उफ्फ! भोंसड़ी ज़िन्दगी, लफ्जों में बच रही गाली।


They have thoroughly abused us, raped us
That we have learnt and mastered all the tones of orgasm
We are a joyful society.
We dance, we sing, we experiment
Fresh breed of fleshy musicians in Bollywood compose
Sweet music of Satan laden with Khudai words
Ah Sufi! you have been resurrected.
Nothing is true, nothing is false, all are elusion.
O! your panty hose, written there liber allusion
हरहराती भागती सेक्सी ज़िन्दगी – Fuck you!
गालियों में दम नहीं we are disappointed.


वे कलाकार मार्केटियर
चूस कर अर्क हमारी गालियों का
दे रुपहले फ्लेवर declaration of civil liberty का
हमको बेचने लगे हैं हमारे ही सामान
गुस्सा फूटता है पॉपकॉर्न की मशीनों में
जब कि हम चबाये जाते हैं नमकीन दाने
एक एक सेकेंड लेते मज़ा फ्लेवरी गालियों का
एक हाथ पैकेट में और एक हाथ निप्पल पर –
हमारी स्तम्भन शक्ति बढ़ गई है
ढाई मिनट से ढाई घंटों तक।


अफवाहें हैं कि दूध के पैकेटों में हैं वे हॉर्मोन
जिनसे मर्दानगी खत्म होती है
यह यूँ ही नहीं हुआ कि हिजड़े
डिजायनर जींस पहनने लगे हैं और
क्रांति के विश्वविद्यालयों में फ्रीडम ही फ्रीडम है।
पढ़ो, सोचो, चिल्लाओ और नौकरी पाओ
एक अदद बीवी, दो अदद बच्चे।
मजे जिन्दगी के ऐसे या वैसे
आकाओं ने कर रखे हैं हजारो इंतजामात
तुम्हें क्रांति चाहिये – ये लो
तुम्हें भ्रांति चाहिये – ये लो
तुम्हें शांति चाहिये – ये लो
फ्रस्ट्रेशन चाहिये – ये लो
सब बिकाऊ है, माल में सब मिलता है
खरीदने की भसोट होनी चाहिये
यह मल्टी डायमेंशनल मार्केटिंग का दौर है
He who curses the market most
Is marketed the most.
सत्यम् शिवम् सुन्दरम्
Proletariats of the world! Be united.
हमारी सरकार सर्वजन हिताय सर्वजन सुखाय।


O! Heavenly joy of masturbation
Lying in soft, silky touch, white linen bed
Enjoy the fond cuddle of five star imported pillows
We are happy males.
Fuck you society
Fuck you world!
What that bitch told in yesterday’s date?
“Keep off”
“No problem baby! another is ready”
Fuck you – I can hold it
Two minutes to two hours.
You can extend it further if u r in the dirty business
Of fist, butter and fire. Cum on sire!


हर्फ टूटते हैं, बिखरते हैं और
बातें कहाँ से कहाँ पहुँच जाती हैं।
यह बातों पर संकट का दौर है कि
कहना और लिखना पढ़ना होता जा रहा कम कम
और टाइप करते सॉफ्टवेयर टूल बदल देता है चुपके से शब्द
हो जाते हैं अर्थ ज़ुदा, बयाँ ज़ुदा
जो बात थी एक मासूम सी धड़कन रवाँ
हो गई है बकबक बयाँ
वो कहते हैं कि क्या हुआ जो दीपक हुआ पिनक
उसका भी अर्थ है, उसकी भी जगह है।
कविता की मौत का मर्सिया पढ़ने का यह उत्तम समय है। (अगला भाग)

रविवार, 17 जुलाई 2011

तुम्हारे बिना अब तो और नासमझ हूँ।

परिवारी नैन झरोखे
करते रह गये निगरानी।

किंवाड़ चौखट झरोखे
झाँकते दो नैन झरोखे 
प्रेम छ्ल उतरा 
अधर दबा दाँतों से। 
अंगुलियाँ हुईं मेरी घायल
किंवाड़ चौखट बीच पिस,
और चीख निकली तुम्हारी।

होती रही निगरानी
बात करती रही सयानी 
लेकर मेरा कर अपने कर 
होठों की फूँक में
लेकर मेरी सिसकारी
बच्चे हो क्या? 
वहाँ ऐसे हाथ रखते हैं भला? 
बहुत पिरा रही है? 
बुद्धू! कुछ नहीं समझते।
... 
...
हाँ, मुझे पीर की समझ नहीं 
तुम्हारे बिना अब तो और नासमझ हूँ।           

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

मीत रचो गीत आज

मीत रचो गीत आज, देहों के सजे साज, छुअन अंग बदन काम, मीत रचो गीत आज। 
संयम न ध्यान याम, आदिम हैं राग साम, सहज शब्द नि:शब्द धाम, सूझे भला गीत गान? 
साँसो के तार धार, चुम्बन अधर बार बार, गन्ध मिलन दो विराम, मीत रचो गीत आज। 
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बुधवार, 13 जुलाई 2011

सावन में काली माई

सूखे ई सावन मनवा के धार
जोगी जनि आवऽ हमरे दुआर।

बदरी तनिहें काली माई
झम झम बरसिहें काली माई
नीब नगीचे न कौनो जाई
जगती पर बरही रहि जाई
कइसे झुलिहें पेंगी पार?
जोगी जनि आवऽ हमरे दुआर।

जर जड़इया काली माई

बिस्तर पर सुतिहें काली माई
टीबी देखिहें काली माई
कजरी छटिहें काली माई
रोअते रहि जाई नीबिया छतनार
जोगी जनि आवऽ हमरे दुआर।

रविवार, 10 जुलाई 2011

आज वीणा वादन को मन किया

(1) 

हा तुम! हाथपाँवहीन जन्म से!! 
हा यौवन! जब भी बहता है लावा
मैं पहचान जाती हूँ तुम्हारे मुख की आब से।
, कुंठित न हो,
 तैयार हो कि आज होना है तुम्हें स्नातक
 कामवारि की बहुरंगी धार से। 
ममता उमड़ी है मेरे भीतर जिसे वासना भी कहते हैं। 
सनातन नासमझ है! 
क्यों हो वंचित तुम, सृष्टि के सर्वोत्तम आनन्द वरदान से?  
कुरूपता या अंग भंग, क्यों करें तुम्हें वंचित?  
जब कि तुम हो सक्षम।
मैं माँ हूँ और तुम मेरी देह के टुकड़े 
क्यों रहो तुम खंडित जब कि 
हमारे मिलन से दरकें अभाव के प्रस्तर द्वार 
और भाव सरि कर जाय तुम्हें तृप्त और मुझे आपूरित
तुम्हारे पास जैव विविधता का अनूठा बीज। 
मैं भूमा क्यों होऊँ वंचित एक अलग रंग के पुष्पपादप से
इससे तुम्हारी गन्ध निखरती है।
और तुम्हारे निखार से मेरा अंत: हुलसता है। 
मैं स्वार्थी नहींअर्थवान हूँ। मुझे समझो। 


(2) 


मैं माँ हूँ। आदिम ममता करती है मेरा सृजन एक परम्परा सी। 
मैं करती हूँ तुम्हारा सृजन। उद्धत परम्परा की वाहक हूँ मैं। 
उफनता है मेरे भीतर उद्दाम काम हर माह 
शरीर से होता है प्रवाहित वह जिसने यूँ नहीं चुनी राह किसी और प्राणी में। 
मैं अंत:सलिला, होती हूँ लहूलुहान चन्द्रकलाओं की नियमितता सी। 
प्रकृति देती है आदिम सन्देश। मैं सन्देशवाहिका हूँ - 
मनुज सृष्टि की सर्वप्रिय संतान है।
समझो कि स्वेदपूर्ण सिसकियों और मन्द आनन्द ध्वनियों में 
भोग्या नहीं आदिम परम्परा के स्वर हैं। 
मेरा सम्मान करो। मैं माँग नहीं रहीमैं तो दायी हूँ 
कह रही हूँ कि मेरे सम्मान से तुम निखरते हो 
और तुम्हारे निखार से मेरा अंत: हुलसता है। 
मैं स्वार्थी नहींअर्थवान हूँ। मुझे समझो।