शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

धान जब भी फूटता है गाँव में... बुद्धिनाथ मिश्र

किसानों के लिये उनके खेत परिवार के सदस्यों की तरह होते हैं और फसलें संतान सी। लिहाजा उनके आपसी व्यवहार भी उसी तरह से होते हैं। किसानी जीवन की इसी रागात्मकता को प्रख्यात गीतकार बुद्धिनाथ मिश्र  का यह गीत अभिव्यक्त करता है। इसे श्री ललित कुमार ने भेजा। 



धान जब भी फूटता है गाँव में
एक बच्चा दुधमुँहा, किलकारियाँ भरता हुआ,
आ लिपट जाता हमारे पाँव में।  
धान जब भी फूटता है गाँव में॥ 

नाप आती छागलों से ताल पोखर सुआपाखी मेंड़ 
एक बिटिया सी किरण है रोप देती चाँदनी का पेंड़
काटते कीचड़ सने तन का बुढ़ापा, हम थके हारे उसी की छाँव में।
धान जब भी फूटता है गाँव में॥ 

धान खेतों में हमें मिलती सुखद नवजात शिशु की गन्ध
ऊँख जैसी यह गृहस्ती गाँठ का रस बाँटती निर्बन्ध
यह ग़रीबी और जाँगरतोड़ मेहनत, हाथ दो, सौ छेद जैसे नाव में।
धान जब भी फूटता है गाँव में॥ 

फैल जाती है सिंघाड़े की लतर सी, पीर मन की छेकती है द्वार
तोड़ते किस तरह मौसम के थपेड़े, जानती कमला नदी की धार
लहलहाती नहीं फसलें बतकही से, कह रहे हैं लोग गाँव गिराँव में।
धान जब भी फूटता है गाँव में॥

गुरुवार, 22 सितंबर 2011

इधर और उधर से भी ..

कदम पड़ेंगे लड़खड़ाते क्या पहली बार अभी? 

नज़्म टूटी नसों में, लहू सूखा, छूटे हर्फ कई
कितना सँभालूँ कैसे कि झोली तार तार हुई
बोलूँ कैसे जीभ बेहया कटखनी बदनाम हुई
हैं जबरिया होठ सिलते दर्द दुनिया सूँ सुई ~ 1~

सहेज रक्खी है जमानत पीर तरी सीने में
देह बदबू कब्र सी खाक मजा अब जीने में
रह गया इश्क गाफिल कुफ्र कामयाबी का
उसमें है रोशनी न स्याह जज्बा नादानी का ~2~

चीखता दुधिया उजाला गली में चौंका अन्धेरा
पूछो न मुझसे कि क्यों खड़ा दरो दीवार पर
न समझूँ कि टूटना उस तरफ या इस तरफ
कह लो अलविदा अब बात क्या जज्बात क्या? ~3~

  

बुधवार, 14 सितंबर 2011

मील का पत्थर

हूँ मील का पत्थर, मेरा कोई इतिहास नहीं 
इतिहास हो जाऊँगा उस दिन, जिस दिन न बचेगा रास्ता कोई। 
मुझे निकालो, लगा दो कहीं कि राही राह भूलें 
बच रहेंगी राहें बताती चुपके से, इस जगह था निशानदाँ कोई।
आँख फाड़े चल दिये हो जब थकोगे और रुकोगे
फट रहेंगे फफोले पाँव के कहेंगे, है इस जगह अश्क दवा कोई।
चलती तुम्हारी जो चुनते न गढ़ते और न लिखते 
पत्थरों की खास तबियत घायल हुई जो, मना न सका कोई।     

शनिवार, 10 सितंबर 2011

बाज आओ।



भभका ढेबरा जवानी के खेल
है पेंदी में तेल, पर न बाती से मेल
बाज आओ।

बचे केशों में लगा लिये छिपा लिये
न लगे सफेद दाढ़ी, मुँह कालिख लगे
बाज आओ।

बेल्ट तो चढ़ा लिये, सीना फुला लिये
सिमट जाये उठान तोंद नीचे झिझक
बाज आओ।

चाँद चमकते रहेंगे पर न घूरो अब
निकल आया चाँद मुँह लटका झटक
बाज आओ।

लिहाज-ए-उमर रोमियो और कुत्ते
हसीनों की गलियाँ करतीं फरक
बाज आओ।

कृत्रिम साँस न आखिरी चुम्बन
होगा हार्ट फेल, पथ किनारे मरोगे
बाज आओ।