शुक्रवार, 30 नवंबर 2012

बुधवार, 28 नवंबर 2012

जन्म, मृत्यु और आइस पाइस


जन्म: 
गिन रहा हूँ आँखें मूँदे एक से सौ तक 
सब छिप जायँ तो आँखें खुलें, गिनती बन्द हो।
मृत्यु:
मिल गया आइस पाइस खेल में आखिरी शाह भी 
चोर ने राहत की साँस ली और खेल खत्म हुआ।


शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

स्त्री!

स्त्री! 
गुफाओं से निकल 
आखेट को तज 
उस दिन जब पहली बार 
लाठी को हल बना मैने जमीन जोती थी 
और तुमने अपने रोमिल आँचल में सहेजे बीज 
बिछाये थे गिन गिन सीताओं में 
प्रकृति का उलट पाठ था वह
उस दिन तुम्हारी आँखों में विद्रोह पढ़ा था मैंने 
आज भी सहम सहम जाता हूँ। 

थी चाँदनी उस रात 
थके थे हम दोनों खुले नभ की छाँव 
भुनते अन्न, कन्द, मूल, गन्ध बीच 
तुमने यूँ ही रखा प्रणय प्रस्ताव
और 
मैं डरा पहली बार।  
अचरज नहीं कि पहला छ्न्द गढ़ा 
भोली चाहतों को वर्जनाओं में मढ़ा 
की मर्यादा और सम्बन्धों की बातें पहली बार 
और पहली बार खिलखिलाहट सुनी
मानुषी खिल खिल
तारे छिपे और गहरे 
आग बुझी अचानक।

असमंजस में मैं 
देवताओं को तोड़ लाया नभ से भूमि पर 
दिव्य बातें - ऋत की, सच की
और तुम बस खिलखिलाती रही
कहा देवों ने - माँ को नमन करो! 
तुमने देखा सतिरस्कार 
बन्द यह वमन करो 
सृजन करो! 

स्त्री! 
मैंने तुम्हारी बात मानी 
सृजन के नियम बनाये 
(पहले होता ही न था जैसे!) 
संहितायें गढ़ीं 
चन्द्रकलाओं में नियम ढूँढ़े 
गर्भ को पवित्र और अपवित्र दो प्रकार दिये
और सबसे बाद प्रकट हुआ विराट ईश्वर परुष
प्रकृति की छाती पर सवार 
दार्शनिक उत्तेजना में
और
तुम्हारी आँखों में दिखी सहम पहली बार।

ज्यों माँ की बात न मान बच्चे ने 
उजाड़ दिया हो किसी चिड़िया का घोसला 
फोड़ दिया हो अंडा पहली बार - 
तुमने आह भरी 
मैं शापित हुआ पहली बार 
प्रलय तक स्वयं को छलने के लिये। 

शब्द छल 
वाक्य छल 
व्याकरण छल... 
मैं गढ़ता गया छल छल छल 
तुम रोती गयी छल छल छल 
आज भी नहीं भूला हूँ मैं अपना 
पहला अट्टहास - बल बल बल 
देहि मे बलं माता! 

आज भी मैं पढ़ने के प्रयास में हूँ 
तुम्हारी आँखों की वह ऋचा
उतरी थी जो बल की माँग पर
मेरी दृष्टि टँगी है तीसरी आँख पर।

दो सीधी सादी आँखों की बातों को 
मैं आज भी नहीं बाँच पाता हूँ।
आश्चर्य नहीं कि हर दोष का बीज
तुममें ही पाता हूँ।
 स्त्री!
मैं पुरुष, इस विश्व का विधाता हूँ।

बुधवार, 21 नवंबर 2012

बस एक सवाल


इश्क़ नहीं हमारा एक शक़ है 
चाहतों पर दुनियावी हक़ है। 
साबित फर्जी तमाम अर्जियाँ
सबूतों की पहुँच उन तक है। 

कहकहे सब तरफ बात पर
समझ गया जो अकबक है। 
करने को खुदक़ुशी जश्न पर
ज़िन्दगी पहुँची हद तक है।   

अचरज नहीं इस तिलस्म पर
बस एक सवाल- कब तक है

रविवार, 11 नवंबर 2012

बै मरदवा!

मैं सुन्दर हूँ
किसी का बेटा हूँ।
मैं अमर हूँ
अमृतमना से जुड़ा हूँ।

बोझ खिसकाने को
थोड़ा हाथ लगाने को
मुझे पहचान लेती हैं
अनचिन्ही आँखें -
मैं विश्वस्त हूँ,
मैं समर्थ हूँ।

उन्हें जब होती है
ज़रा सी भारी परेशानी
मुस्कुराती हैं ज़रा सी
परखते हुये मेरी पेशानी -
मैं मूर्त सहयोग हूँ
मैं समस्या का हल हूँ।

.
.
.
ऐसा बहुत कुछ लिखता
अगर मेरा मित्र न कहता
'बै मरदवा!
ईहो कहे वाली बाति हे?'

लज्जित हूँ अपनी खिसक पर कि
अब भी हैं यूँ ही सब कुछ अध्यानी ही करने वाले।
कन्धे उचका कर पल में भूलने वाले
अब भी हैं कहने वाले -
बै मरदवा!

गुरुवार, 8 नवंबर 2012

नइहरवा हम का न भावे

प्रियतम का पुर, उसके आने की आहट, उससे मिलने की बेचैनी और मिलन का आह्लाद निर्गुण और सगुण संत कवियों के प्रिय विषय रहे हैं। चाहे मीरा का 'सखी मोरी नींद नसानी' हो या 'कोइ कहियो रे प्रभु आवन की', कबीर का 'दुलहिनि गावहु मंगलाचार, हमरे घर आये राजा राम भर्तार' हो या 'नइहरवा हमका न भावे'; अनुभूतियों की गहन पवित्रता साधक, पाठक, गायक और स्रोता सबको दूसरे ही लोक में ले जाती है।
भोजपुरी क्षेत्र के कबीर का 'नइहरवा...' पछाँही और मालवी स्पर्श के कारण अनूठा है।
सुनिये इसे तीन स्वरों में - कुमार गन्धर्व, कैलाश खेर और नवोदित आदित्य राव। कुमार गन्धर्व से प्रेरणा पाते हैं कैलाश खेर और उनके स्वरों को ही आदित्य राव ने दुहराया है।    
नइहरवा हम का न भावे, न भावे रे । साई कि नगरी परम अति सुन्दर, जहाँ कोई जाए ना आवे ।
चाँद सुरज जहाँ, पवन न पानी, कौ संदेस पहुँचावै ।
दरद यह साई को सुनावै … नइहरवा।
आगे चालौ पंथ नहीं सूझे, पीछे दोष लगावै ।
केहि बिधि ससुरे जाऊँ मोरी सजनी, बिरहा जोर जरावे ।
विषै रस नाच नचावे … नइहरवा।
बिन सतगुरु अपनों नहिं कोई, जो यह राह बतावे ।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, सपने में प्रीतम आवे ।
तपन यह जिया की बुझावे … नइहरवा।

कुमार गन्धर्व
कैलाश खेर
आदित्य राव