सोमवार, 29 दिसंबर 2014

अगली बार होठ

पिघलन श्लथ देह की
उमड़ी निथरी
निकसी आँखों से
उत्सुक
छू लिया लावा मोम
अँगुरी के पोर आज भी जमी है -
मेरी देह
आसगर्भा है
अगली बार होठ छूने हैं।

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

चाय ठंडी हुई!

गुनगुनी प्रात
कुनकुनी धूप
उनके होठों पर
पाटल दल स्पर्श
देह ओस ठिठकी
उड़ी भाप
चाय ठंडी हुई!

मंगलवार, 30 सितंबर 2014

पहला पुण्य

थी दे रही भिक्षुणी उपदेश -
देह मिथ्या
थूक विष्ठा मूत्र लार
अस्थि मज्जा मांस रक्त।

वातावरण में था वैराग्य
सब शांत, प्राणवायु हीन।
 
कृपादृष्टि घूमी जो मेरी ओर
देखा काषाय लिपटी सानुपात
बदन वदन ज्यों ताम्र स्वर्ण संग
कह उठा अकस्मात -
सुन्दर, अति सुन्दर रूप!

बह चला मलयानिल
रुकी साँसें हुईं गहमह।

लौटा सोचते मैं -

आह, कैसा पहला पुण्य!   

शुक्रवार, 22 अगस्त 2014

विविध

(1)
तुम्हारा कैमरा कुछ भी कहे 
मेरी अंतर्मुखी आँखें कहती हैं 
न रोपे होते चाय बगान तो पहाड़ियाँ सुन्दर होतीं
(2)
समझने लगा हूँ कान्ह तुम्हारा अभिशाप 
आज्ञा चक्र का बहता मणि दुर्गन्ध लिये
और मन में धरे अनेक धर्म षड़यंत्र घाव 
न थमते अश्व की तरह हजार वर्षों तक 
भटकता प्रतिहिंसक मुझमें अमर है!
(3)
जिसे बहलाते हो पैरासिटामॉल की गोलियाँ दे 
वह बच्चा नहीं, नसों में जन्म लेता बुढ़ापा है
(4)
रेमेसिस! 
हजारो वर्षों से सोई तुम्हारी ममी की
गलती त्वचा का इलाज यौवन नगरी पेरिस में हुआ 
पढ़ कर मैं सोचता हूँ 
शरों से भीष्म न छिदे होते, होती जो उनकी ममी 
कृष्ण के साथ सोई दिल्ली के किसी संग्रहालय में 
गीता के सात सौ क्या तब भी मिलते 
एक लखिया महाभारत में?
(5)
बनारस की बिजली जैसे 
पिटाया बच्चा देर तक रोने के बाद 
ठहर ठहर अहके!
(6)
, न हाथ जोड़ 
यह जो रुख पर आब है, कोई रुहानी नूर नहीं 
देह में उफनता अम्ल है जिसकी आग अभुआ रही है
तिल तिल जलन क्षण छन मौत

रविवार, 3 अगस्त 2014

तुम आना

तुम आना जब
आँखें केवल पुतलियाँ रह जायेंगी
कान वायु अवरोध तने लघु वितान भर
त्वचा गुरुत्त्व संघर्ष बाद झूलती खंडहर 
सोई होगी नाभि से उठती नागिन लपलप 
थक कर मस्तिष्क में।

तुम आना जब
कटि से नीचे होगा पक्षाघात और हाथ
होंगे कर्म कम्पनों के अवशेष भर।

तुम थामना तब
मुझे वैसे ही जैसे उठाती है माँ
शिशु को दूध पिलाने, आँचल छाँव
देना कि इच्छा बची होगी नि:श्वास ऊष्मा सी
गाना लोरियाँ जिनमें होगी गोरियाँ प्रेम भरी
तत्पर कुमार के मधु चुम्बन को
सुन न पाऊँगा लेकिन अधर होंगे मर्मर
गाने को देहराग मन के आँगन किल्लोल।

तुम आना जब
मैं लूँगा पुनर्जन्म, गाना सोहर उल्लास भर
कि तुम्हें मिलेगा प्रेम एक बार फिर
भरना सिसकारी उत्सव एकांत बीच
वासनाओं को देना अमरत्त्व वरदान
तुम आना। 

**********
~गिरिजेश राव~  

बुधवार, 30 जुलाई 2014

ऐसा काफिर कहते हैं

चलो अब सो जायें 
मृत्यु की शांति में। 
मैंने यहूदी शिशुओं को भेज दी हैं थपकियाँ 
और तुमने फिलिस्तीनी बच्चों को लोरियाँ। 
सुब्ह जागना जल्दी! 
शुभ होता है 
देवता उतरते हैं धरती
मिलते हैं रात दिन जब - 
ऐसा काफिर कहते हैं।

सोमवार, 21 जुलाई 2014

गधे पर रकाब

हम जिसे ख्वाब कहते हैं
वो उसे खराब कहते हैं

छुपा है रूप नूर के पीछे
आँखों से हिजाब दिखते हैं

इश्क़ उनकी लिखाई में 
हर्फ हर्फ शबाब दिखते हैं

कीमती बहुत मायूसियाँ
नफरतें बेहिसाब रखते हैं

तैयारी है अश्वमेध की
गधे पर रकाब कसते हैं

~ गिरिजेश राव 

शनिवार, 19 जुलाई 2014

आत्मज्ञान

... और अंत में मैंने अपनी वह रचना पढ़ी जिसे
मानसिक निर्वात में रचा था।
निर्वात वैसा नहीं जिसमें कुछ नहीं होता
निर्वात ऐसा जिसमें केवल वही थी
और

मैंने जाना कि तमाम दर्शन
ढेरों धर्मग्रंथ, प्रवचन,, साहित्य, गढ़ू ग्रंथ, विचार, विमर्श आदि आदि
सुन्दर ध्वंसावशेष थे जिन्हें संग्रहालयों में सजा
 या
घर की दीवारों पर टाँग
इम्प्रेशन जमाया जा सकता था
आदर भी दिया जा सकता था
सहेजा जा सकता था कि
प्रमाण हो आगामी पीढ़ियों के पास
कि पुरनिये निपट गँवार अन्धविश्वासी न हो
बहती नदी से बाहर को उछाल मारती मछलियों से थे
और   
'चिंतनीय' थे
कि चिंतनीय होना जीवन का चिह्न होता है
इसलिये वे जीवन से लबालब भरे आदरणीय थे आदि आदि।

बात वही कि सोता भीतर से ही फूटता है
वही श्रेय है
हाथों में छेनी हथौड़ी और मन में चट्टान तो हो!

उस प्राचीन रोमन कुल्हाड़ी को सहेज क्या हासिल
जिसकी बेंट सात बार

और जिसका फल चार बार बदले जा चुके हों?

शनिवार, 31 मई 2014

विविधा

(1)
स्थगित किया चूमना हमने
टूटने तक खिंच चुकी धड़कन
न झेल पाती नम दहकन!

(2)
हवन परोपकार के
तुम कुंड मैं समिधा
दहन अगन जलन धूम संसार के।

(3)
उपमा
रूपक नहीं आते मुझे
न जानता हूँ चाँद तारों की ऊँचाइयों को

बस तुम्हारी चाय के साथ पारले जी होना चाहता हूँ।  

(4)
आँसू काजल से लिखी पाती
प्रतिशोध वश राख हुई
पत्थर पर रह गया तुम्हारा नाम भीगा।


(5)
पहले ग्रीटिंग कार्ड में सूखी पंखुड़ियाँ
टूट कर बिखर गईं रसोई में
तुमने सराहा मेरा जूड़े में लगाना घेंवड़े का फूल।   

______________
~गिरिजेश राव~

मंगलवार, 20 मई 2014

वासना याचना

प्रशांत मुख उभरे
लाल होठ
साँझ शांत सर
निमलित रक्तपुंडरीक 
कर लूँ आचमन
निशापूजन हेतु?


गुरुवार, 1 मई 2014

अधिकार

बनाये नहीं जाते
दिये नहीं जाते
लिये नहीं जाते
कुछ अधिकार

बस होते हैं
होते हैं कि
उनके होने से
सब होते हैं
बनाने वाले
देने वाले
लेने वाले

वे ऐसे जुड़ते हैं
क्षिति - भोजन
जल - प्यास
पावक - पेट
गगन -  एकांत
समीर - साँस

करते व्यापार
छीनना चाहते हो
वे अधिकार

कैसे छीनोगे उन्हें?
जो
बनाये नहीं गये
दिये नहीं गये
लिये नहीं गये

वे थे, हैं, रहेंगे
कि तुम्हारा होना भी
उनसे ही है
खुद को खुद से
छीन कर तो देखो
मिटा कर तो देखो

दबंगई गिरहकटी
कुछ मामलों में नहीं चलते
जैसे:
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीर
भोजन, प्यास, पेट, एकांत, साँस

रविवार, 30 मार्च 2014

हँसी

तुम्हारी हँसी -

तुलसी बिरवे बीच
फूली  

सरसो अकेली 

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

पुन:

(1)  
और जब मैं अन्धा हो जाऊँ
तब तुम मुझे स्पर्श देना
वह मेरा प्रकाश होगा।

(2)   
चश्मिस! 
जहाँ भी हो, सुनो! 
किशोर भोरों में जो 
टप टप टपकता 
ऊषा का आह्वान करता
अभिशप्त विश्वामित्र
देख लेता था तुम्हें 
तम के पार भी; 
आज जान गया है प्रकाश को 
अन्धा होने के बाद, 
उसका चश्मा उतर गया है।

(3)
कहो कि जब वही प्रकाशवही पुतलियाँवही आकाश होगा 
कहो कि जब उनके संघनन का रेटिना से नहीं साथ होगा 
तुम उतरोगी हर साँझ उस उदास दिये सी मेरी आँखों में 
जिसकी कालिख है जमा घर के इंतजारी ताखों में!

(4)
अन्धेरों ने कहा है हाथ बढ़ाने को 
रोशनदानी हवा बही है पाँव उठाने को 
मौन है कि कानों के लिये कुछ भी नहीं
छील गयी है याद खाल जलती भी नहीं 
बस नथुने हैं कि काम जारी है 
स्वेद वही भूमा की गन्ध वही
सूखे फागुन बस धूल भरी आँधी है।

(5)
अबीर लिये बैठा हूँ मैं 
तुम सेनुर थोड़ी ले आना।

रविवार, 23 फ़रवरी 2014

फूट पड़ो



अपनी बातों से
कुरेदता हूँ
कि तुम उठो!
नहीं,
फूट पड़ो
भँड़सार की जलती रेत से
उछलते मकई के दाने की तरह!
मुझे तुम्हें शुभ्र तप्त होते देखना है
जैसे कि पीताभ
मार्तण्ड होता है।

बुधवार, 19 फ़रवरी 2014

टँगी

टँगी है ठिठुरन
वसंत में भीगती
पत्ती के सूखे गात से - 
उतार लूँ 
ओढ़ सकूँ 
तो कविता बने!  

शुक्रवार, 24 जनवरी 2014

जागरण

प्रार्थना के अर्घ्य सम
अलस मंत्र गीति लय
निशा जागरण आँजुरी भर
पीना चाहता हूँ।

प्रात नव स्निग्ध नम
रक्तिम नींद अधर पर
ले चुम्बन एक पलक भर
सोना चाहता हूँ।

न कहना -
जागना चाहता हूँ!

_______________


गिरिजेश राव